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इति॑ चि॒न्नु प्र॒जायै॑ पशु॒मत्यै॒ देवा॑सो॒ वन॑ते॒ मर्त्यो॑ व॒ आदे॑वासो वनते॒ मर्त्यो॑ वः। अत्रा॑ शि॒वां त॒न्वो॑ धा॒सिम॒स्या ज॒रां चि॑न्मे॒ निर्ऋ॑तिर्जग्रसीत ॥१७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iti cin nu prajāyai paśumatyai devāso vanate martyo va ā devāso vanate martyo vaḥ | atrā śivāṁ tanvo dhāsim asyā jarāṁ cin me nirṛtir jagrasīta ||

पद पाठ

इति॑। चि॒त्। नु। प्र॒ऽजायै॑। प॒शु॒ऽमत्यै॑। देवा॑सः। वन॑ते। मर्त्यः॑। वः॒। आ। दे॒वा॒सः॒। व॒न॒ते॒। मर्त्यः॑। वः॒। अत्र॑। शि॒वाम्। त॒न्वः॑। धा॒सिम्। अ॒स्याः। ज॒राम्। चि॒त्। मे॒। निःऽऋ॑तिः। ज॒ग्र॒सी॒त॒ ॥१७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:41» मन्त्र:17 | अष्टक:4» अध्याय:2» वर्ग:16» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:3» मन्त्र:17


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (देवासः) विद्वान् जनो ! जो (मर्त्यः) मनुष्य (वः) आप लोगों को (पशुमत्यै) बहुत पशु विद्यमान जिसमें उस (प्रजायै) प्रजा के लिये (धासिम्) अन्न की (वनते) सेवा करता है और जो (चित्) निश्चय से (इति) इस प्रकार से (अस्याः) इस प्रजा के (तन्वः) शरीर की (शिवाम्) मङ्गलस्वरूप (जराम्) वृद्धावस्था की (आ, वनते) अच्छे प्रकार सेवा करता है और जो (मर्त्यः) मनुष्य (चित्) निश्चय से (मे) मेरे शरीर की मङ्गलस्वरूप वृद्धावस्था का सेवन करता है और (निर्ऋतिः) भूमि के सदृश (अत्रा) इस प्रजा में (वः) आप लोगों के अन्न को (जग्रसीत) खाता है, इस प्रकार हे (देवासः) विद्वान् ! आप लोग हम लोगों के लिये इसको (नु) शीघ्र सिद्ध कीजिये ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वान् जनो ! आप लोग ऐसा प्रयत्न करो जिससे मनुष्यों की अवस्था बढ़े, जब तक मनुष्य वृद्ध नहीं होते, तब तक ये परीक्षक भी नहीं होते हैं ॥१७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

हे देवासो ! यो मर्त्यो वः पशुमत्यै प्रजायै धासिं वनते यश्चिदित्यस्याः प्रजायास्तन्वः शिवां जरामा वनते यो मर्त्यश्चिन्मे तन्वः शिवां जरां वनते निर्ऋतिरिवात्रा वो धासिं जग्रसीतेति, हे देवासो ! यूयमस्मभ्यमेतन्नु साध्नुत ॥१७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इति) अनेन प्रकारेण (चित्) निश्चयेन (नु) सद्यः (प्रजायै) (पशुमत्यै) बहवः पशवो विद्यन्ते यस्यां तस्यै (देवासः) विद्वांसः (वनते) सम्भजसि (मर्त्यः) मनुष्यः (वः) युष्मान् (आ) समन्तात् (देवासः) विद्वांसः (वनते) सम्भजति (मर्त्यः) (वः) युष्माकम् (अत्रा) अस्यां प्रजायाम्। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (शिवाम्) मङ्गलमयीम् (तन्वः) शरीरस्य (धासिम्) अन्नम् (अस्याः) प्रजायाः (जराम्) वृद्धावस्थाम् (चित्) निश्चयेन (मे) मम (निर्ऋतिः) भूमिः। निर्ऋतिरिति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१।१) (जग्रसीत) ग्रसते ॥१७॥
भावार्थभाषाः - हे विद्वांसो ! यूयमीदृशं प्रयत्नं कुरुत येन मनुष्याणामायुर्वर्द्धेत यावन्मनुष्या वृद्धा न भवन्ति तावदेते परीक्षका अपि न जायन्ते ॥१७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे विद्वानांनो! तुम्ही असा प्रयत्न करा, ज्यामुळे माणसाचे आयुष्य वाढेल. जोपर्यंत माणसे वृद्व होत नाहीत तोपर्यंत ती परीक्षकही होत नाहीत. ॥ १७ ॥